Dalit Andolno ka Samajshastriya Moolyankan

Authors

  • Dr. Ajay Kumar Asst. Professor, Ma Durga Sarvidaya Mahavidhyalay, Arval, Sultanpur, University of Allahabad image/svg+xml

Keywords:

दलित आन्दोंलन, सामाजिक सुधारों के प्रति आस्थावान, उच्च स्तरीय मशीनी औद्योगिक क्रान्ति

Abstract

बीसवीं सदी के प्रारंभिक चरण में पाश्चात्य नवजागरण से प्रभावित सामाजिक सुधारों के प्रति आस्थावान् प्रगतिशील बुद्धिजीवियों का एक वर्ग पनपने लगा था। लोगों में देशभक्ति और राष्ट्रीय भावना के विचार पनप रहे थे। नए आर्थिक ओर व्यावसायिक स्रोतों की उपलब्धता और शिक्षा एवं अनुकरण की प्रवृत्ति ने सम्पन्न दलित और गैर-ब्राह्मण मध्यम दर्जे की जातियों में संस्कृतिकरण के भाव भर दिए। वे अपने जातीय संगठन बनाने और उनके सुदृढ़ीकरण में प्रवृत्त हुए। अपनी-अपनी जातीय संस्कृति, इतिहास जानने की ललक उठी और समाज में स्थान पाने की व्याकुलता बढ़ी, त्रिवर्णों ने सदैव उन्हें उपेक्षित समझा था। अब वे अपनी पहचान के लिए जागरूक हो उठे। इससे जातिगत चेतना और दलित आंदोलन के सही रंग निखरे। निसंदेह, बीसवीं सदी में आरंभिक दशकों का एक महत्वपूर्ण लक्षण था- जाति सभाओं, समितियों एवं आंदोलनों का फैलाव। ऐसे संगठन मुख्यतः मंझोली (और कभी-कभी निम्न) जातियों के पर्याप्त छोटे शिक्षित समूहों द्वारा संगठित किए जाते थे। व्यवसाय अथवा नौकरियों की होड़ में देर से शामिल होने वाले इन लोगों को लगता था कि इस क्षेत्र में पहले से स्थापित ब्राह्मणों एवं अन्य उच्च जातियों के विरूद्ध संघर्ष की दृष्टि से एकत्रित होने के लिए जाति एवं उपयोगी साधन हो सकती है। सर्वप्रथम ब्राह्मण एवं अन्य उच्च जातियाँ ही अंग्रेजी शिक्षा से लाभान्वित हुई थीं। कैंब्रिज संप्रदाय के इतिहासकारों का इस गुटवादी पक्ष पर बल देना अनपेक्षित नहीं है, किन्तु समाजशास्त्रियों की प्रवृत्ति इन जातिगत आंदोलनों को संस्कृतीकरण की प्रक्रिया द्वारा कुछेक जातियों की ऊर्ध्वगामी गतिशीलता से जोड़ने की रही है। कभी-कभी वे इनको ‘परंपरा’ एवं ‘आधुनिकता’ के बीच एक महत्वपूर्ण कड़ी भी मानते हैं। महाराष्ट्र के गैर-ब्राह्मण आंदोलन से संबंधित एक ताजा अध्ययन में गेल ओम्बेदूत ने एक तीसरा ही दृष्टिकोण अपनाया है। इस दृष्टिकोण के अनुसार ये जातिगत-संघर्ष सामाजिक-आर्थिक एंव वर्गीय तनावों की विकृत किंतु महत्वपूर्ण अभिव्यक्ति थे। यह दृष्टिकोण संस्कृतिकरण की धारणा की अत्यंत संकीर्ण मानता है क्योंकि इससे महाराष्ट्र के ‘सत्यशोधक समाज’ अथवा तमिलनाडु के ‘आत्म सम्मान आंदोलन’ जैसे जुझारू और लोकप्रिय जाति-विरोधी आंदोलनों की व्याख्या नहीं की जा सकती।

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References

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Published

30-06-2016

How to Cite

Dr. Ajay Kumar. (2016). Dalit Andolno ka Samajshastriya Moolyankan. Jai Maa Saraswati Gyandayini An International Multidisciplinary E-Journal, 1(III), 82–88. Retrieved from http://jmsjournals.in/index.php/jmsg/article/view/44